नेचुरोपैथी की थेरपी शुरू करने से पहले इसके एक्सपर्ट से राय जरूर लेनी चाहिए। थेरपी के लिए सामान की कीमतों में फर्क हो सकता है। वहीं इलाज के तरीके और असर में भी कुछ अंतर संभव है।
भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने 18 नवंबर 2018 को पहले नेचुरोपैथी डे के रूप में मनाने का फैसला किया है। दरअसल, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नेचुरोपैथी से इलाज में बहुत यकीन था। इसलिए 18 नवंबर 1945 को महात्मा गांधी ने ‘ऑल इंडिया नेचर क्योर फाउंडेशन ट्रस्ट’ की स्थापना की थी।
कुदरत के साथ रहकर भी हम कुदरत से दूर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि जो चीजें नेचर ने हमें मुफ्त में दी हैं, हम उनका भी फायदा नहीं उठा पाते। गांव में तो नेचुरोपैथी किसी-न-किसी रूप में अब भी मौजूद है। नेचुरोपैथी कैसे हमें नेचर के करीब ले जाती है और इसके फायदे और सीमाएं क्या हैं, एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती।
क्यों है खास
एलोपैथी (Allopathy) मॉडर्न है, इसमें रिसर्च भी है, लेकिन सच तो यह भी है कि इसकी दवा लेने के कई साइड इफेक्ट्स भी हैं। इतना ही नहीं, एलोपैथी दूसरी चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में खासी महंगी भी है।
बात जब नेचुरोपैथी की आती है तो इसमें सबसे खास यह है कि इसको सही तरीके से करने पर इसके फायदे ही फायदे हैं। इसमें पंच तत्वों यानी पृथ्वी (मिट्टी), जल, वायु, अग्नि (धूप) और आकाश (उपवास) की मदद से इलाज करते हैं। यहां उपवास को ही आकाश माना गया है क्योंकि जिस तरह आकाश खाली होता है, उसी तरह शरीर को भी ठीक करने के लिए खाली रखना पड़ता है।
नेचुरोपैथी मानती है कि जब शरीर में इन पांच तत्वों का संतुलन बिगड़ता है तो समस्याएं पैदा होती हैं। नेचर ने हमें ये सभी चीजें मुफ्त में उपलब्ध कराई हैं। नेचुरोपैथी में इलाज से ज्यादा इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि बीमारी पैदा ही न हो। इतना ही नहीं, नेचुरोपैथी में इलाज की एक प्रक्रिया से कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं। मसलन, मिनी एनिमा (टोना) से न सिर्फ कब्ज (Constipation) का इलाज होता है बल्कि यह पूरी पाचन क्रिया (Digestive System) को ही दुरुस्त कर देता है। शरीर में मौजूद टॉक्सिंस को निकालता है। इससे हमारे कई अहम अंग जैसे लिवर (Liver), पेनक्रियाज (Pancreas) आदि बेहतर तरीके से काम करने लगते हैं। इससे अल्सर (Ulcer) की समस्या में भी फायदा पहुंचता है।
क्या है मूल सिद्धांत
हम जो भी खाते हैं, उससे वेस्ट भी बनते हैं। अगर ये वेस्ट सही ढंग से शरीर से बाहर नहीं निकल पाएं तो टॉक्सिंस के रूप में जमा होने लगते हैं। ये जहां-जहां जमा होंगे, वहीं उनसे जुड़ी समस्याएं पैदा होंगी, मसलन अगर पाचन तंत्र में जमा होते हैं तो कब्ज, अल्सर, बदहजमी जैसी समस्याएं होंगी। ये अगर घुटनों में जमा होंगे तो घुटनों में दर्द, ऑर्थराइटिस जैसी बीमारियां पैदा होती हैं। गर्दन में हो तो स्पॉन्डिलाइटिस हो सकता है। नेचुरोपैथी के जरिए से इन टॉक्सिंस को बाहर निकालकर शरीर को रोग मुक्त किया जाता है। इसके लिए किसी दवा की जरूरत नहीं होती। इसमें उन तत्वों को उपयोग होता है, जिनसे शरीर बना है।
क्यों होती है बीमारी
नेचुरोपैथी कहती है कि जब आप ज्यादा तेल और मसालों में पकाया खाना खाते हैं या फिर बहुत ज्यादा उबला हुआ तो उसका फायदा शरीर को नहीं होता। हां, नुकसान जरूर होता है। इससे शरीर में वेस्ट ज्यादा पैदा होते हैं। ज्यादा होने की वजह से कई बार सभी वेस्ट शरीर से बाहर नहीं निकल पाते और इनका जमाव शरीर में कहीं-न-कहीं होने लगता है। ये ही धीरे-धीरे टॉक्सिंस बन जाते हैं। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि किसी अनाज या दाल को आप धूप में कितना भी गर्म कर लें, उसे जब जमीन में लगाएंगे तो वह अंकुरित हो जाता है और पेड़ भी बन सकता है, लेकिन जब उसी अन्न या दाल को हम पका लेते हैं तो उसमें अंकुरण मुमकिन नहीं। इसलिए हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि कुदरत की दी हुई चीजों को उसी के रूप में लें। पकाने या तेल में तलने से उनकी न्यूट्रिशन वैल्यू कम हो जाती है।
गांवों में नेचुरोपैथी मौजूद
गांव में किसानों और मजदूरों को नेचुरोपैथी के तत्व काम करते हुए ही मिल जाते हैं। मसलन, खेतों में काम करते हुए धूप (सन बाथ) और धूल-मिट्टी (मड थिरेपी) का फायदा मिल जाता है। उन्हें ज्यादा धूप लगती है तो अमूमन वे अपनी शर्ट उतारकर काम करते हैं। इससे उनके शरीर का 70 से 80 फीसदी हिस्सा धूप के संपर्क में रहता है। इससे विटामिन डी की कोई कमी नहीं होती। उन्हें कोई सप्लिमेंट लेने की भी जरूरत नहीं होती। ज्यादातर किसान सुबह में खेतों पर पहुंचते हैं, इसलिए उन्हें ताजा हवा मिल जाती है। वैसे भी गांवों में शहरों की अपेक्षा पलूशन काफी कम रहता है। कुएं का पानी पीने से कई पोषक तत्व उन्हें पानी से ही मिल जाते हैं। खाने में भी उनके लिए ताजा सब्जियां, फल आदि आसानी से उपलब्ध रहते हैं। कई घरों में तो खेतों में मौजूद सब्जियों को तोड़ते हैं और उसी समय पकाकर खाते हैं जबकि शहर में रहने वाले लोगों को यह सब आसानी से शुद्ध रूप में नहीं मिल पाता। इसलिए परेशानियां आती हैं। इन परेशानियों को दूर करने के लिए नेचुरोपैथी की मदद ले सकते हैं।
किन बीमारियों में कारगर
ऐसी बीमारियां जो दूसरों से नहीं फैलती यानी नॉन-कम्युनिकेबल डिजीज मसलन डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, हाइपरटेंशन, मोटापा, दमा, थाइरॉइड आदि में नेचुरोपैथी कारगर है।
किन बीमारियों में नहीं
अगर किसी का ऐक्सिडेंट (Accident) हुआ है तो ऐसे में एलोपैथी से इलाज कराना ही बेहतर है। इमरजेंसी (Emergency) की स्थिति से बाहर निकलने के बाद मरीज के लिए नेचुरोपैथी सबसे बेहतरीन विकल्प हो सकती है।
गलत आदतें
शरीर के अंदर यदि गैस, बलगम या कब्ज में से कोई एक परेशानी महसूस हो रही है तो इसका कारण है- जो भोजन ठीक से पचा नहीं।
खाना न पचने की वजहें
1. बिना भूख के खाना
2. जरूरत से ज्यादा खाना
3. मन अशांत हो फिर भी खा लेना
4. गलत भोजन करना
5. दोपहर के खाने के बाद फौरन ही फिजिकल ऐक्टिविटी में लग जाना।
सही आदतें
1. भूख न लगे तो न खाएं।
2. जितनी भूख हो, उतना ही खाएं।
3. पहले चित्त को स्थिर करें, फिर खाएं। इसके लिए प्राणायाम, योगासन, धूप स्नान, मेडिटेशन आदि कर सकते हैं।
4. डिब्बा बंद, पैकेट बंद, बोतल बंद, रेस्ट्रॉन्ट, ढाबों का भोजन न करना।
5. दिन में भोजन के बाद कम से कम 30 मिनट का आराम लेना मुश्किल है तो सामान्य भोजन न करें। फल या सलाद आदि खाएं।
प्राकृतिक चिकित्सा में तीन तरह की रसोई
1. भगवान की रसोई: इस रसोई में सूरज धीरे-धीरे फलों, सब्जियों को पकाते हैं। वायुदेव लोरी गाकर बड़ा करते हैं। चांद इसमें औषधि और रस देता है जबकि धरती खनिज पदार्थ उपलब्ध कराती है। जो लोग इन्हें इसी रूप में खाते हैं, वे एक तरह से भगवान हो जाते हैं क्योंकि भगवान शक्तिमान हैं, वह रोगी नहीं होते और दवा कभी नहीं खाते।
2. इंसान की रसोई: अगर भगवान की रसोई से मिले हुए फल, सब्जी आदि को भूनकर खा लें तो यह भी चल सकता है। ये भी स्वस्थ रह सकते हैं।
3. शैतान की रसोई: इसमें डिब्बाबंद, पैकिट बंद, बोतल बंद, जंक फूड (Junk Food), फास्ट फूड (Fast Food), रेस्तरां का खाना, ढाबों का खाना आता है। ऐसा खाना खाकर बीमार पड़ना स्वाभाविक है।
क्या हैं नेचुरोपैथी के पीछे के तर्क
*कुछ एक्सपर्ट तो नेचुरोपैथी शब्द को ही नहीं मानते। वह कहते हैं कि इसमें कोई दवा या इलाज नहीं होता, इसलिए पैथी कहना सही नहीं है। इसे नेचर क्योर कहना चाहिए।
*हर जिंदा प्राणी के शरीर में बीमारियों से लड़ने की क्षमता होती है, जिसे हम Healing Power within कहते हैं। जैसे अगर हड्डी टूटी है तो उसे आराम देने पर वह खुद ही जुड़ जाती है। ठीक इसी तरह शरीर के दूसरे अंगों को कुदरती तरीके से आराम देने से बीमारियां बिना दवाओं के ठीक हो जाती हैं।
*इस धरती पर लाखों जीवित प्राणी हैं, उनमें से आधुनिक इंसान ही एकमात्र जीव है जो बीमारियों को ठीक करने के लिए दवा का सहारा लेता है। बाकी जीव तो बिना दवा और बिना ऑपरेशन के ही ठीक हो जाते हैं। प्राचीन समय में इंसान भी आयुर्वेदिक दवाई का उपयोग बहुत कम करता था।
*जैसे सोने को जोड़ने के लिए सोना और लोहे को जोड़ने के लिए लोहा ही सबसे अच्छा और सही रहता है, उसी तरह इंसान के अंदर की बीमारियों को ठीक करने के लिए भी उन्हीं तत्वों ( मिट्टी, पानी, धूप, हवा और आकाश) का उपयोग सही है, जिनसे इंसान बना है।
*कुछ एक्सपर्ट्स दूध या दूध से बनी चीजों का सेवन करने से मना करते हैं। वे कहते हैं कि दूध का स्रोत पेड़-पौधे न होकर जानवर हैं। दूसरे, कोई भी दूसरा जानवर बड़े होकर दूध नहीं पीता और बचपन में किसी दूसरे जानवर का दूध नहीं पीता। तो इंसान क्यों पिए, बछड़े का दूध क्यों छीने? फिर दमा-एग्जिमा जैसी बीमारियों की वजह दूध है। जब दूध से बेहतर विकल्प (दालें, धूप, हरी सब्जियां) हमारे पास मौजूद हैं तो हम दूध क्यों पिएं।
*प्राकृतिक चिकित्सा में ‘रोग’ शब्द नहीं है। स्वास्थ्य बढ़ता है या फिर स्वास्थ्य की कमी होती है।
*कोई ऐसी दवा नहीं है जो बीमारी पैदा न करे।
*उपवास से जब तक ताकत नहीं आए, तब तक उपवास करना चाहिए। दरअसल, उपवास से जब शरीर के अंदर हुई क्षति दूर हो जाती है तो कमजोरी अपने आप खत्म हो जाती है।
योग और नेचुरोपैथी
योग को भी नेचुरोपैथी का ही अंग माना गया है। योग की सहायता से मन शांत रहता है। प्राणायाम और योगासन के भी फायदे हैं। योग की मदद से शरीर के अंदर के अंग मजबूत होते हैं। वहीं एक्सरसाइज से शरीर का बाहरी हिस्सा मजबूत होता है। ध्यान करने से मानसिक शक्ति भी बढ़ती है।
नेचुरोपैथी सेंटर पर ऐसे होता है इलाज
नेचुरोपैथी सेंटर पर बीमारियों के अनुसार कई दूसरे तरीके भी हैं जिनसे इलाज किया जाता है। इनमें हाइड्रोथेरपी का खास रोल है। मसलन कटि स्नान, मेरुदंड स्नान, स्टीम बाथ, धूप स्नान, मड स्नान, एनिमा आदि। इसके अलावा मालिश भी एक तरीका है।
मिनी एनिमा (Enema)
यह कब्ज की समस्या से निजात दिलाने में काफी कारगर है। इसमें एनस (गुदा मार्ग) से गुनगुना पानी या नीम के पत्तों को उबालकर छानने के बाद बचे हुए पानी को एनिमा किट के जरिए शरीर के अंदर पहुंचाते हैं, जिससे हमारी छोटी आंत की सफाई होती है। आजकल रेडिमेड एनिमा केन भी मिलने लगे हैं, जिनकी कीमत 200 से 400 रुपये है। इसे पहले खुद सीख लें, फिर बच्चों को भी अगर कब्ज की समस्या है तो करा सकते हैं।
कटि स्नान (हिप बाथ Hip Bath)
इसमें एक बाथटब होता है, जो लोहे या फाइबर का बना होता है। इसमें पानी को ऊपर से 3 से 4 सेंटीमीटर छोड़कर भर दिया जाता है। पानी का तापमान शरीर के तापमान से कम या ज्यादा रखा जाता है। पानी के तापमान का निर्धारण बीमारी के लक्षण के आधार पर होता है। अगर किसी को कोल्ड ट्रीटमेंट की जरूरत है तो पानी का तापमान अमूमन 30 से 32 डिग्री सेल्सियस तक रखा जाता है। वहीं हॉट वॉटर ट्रीटमेंट में यह 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। दरअसल, पानी का अपना एक गुण है। यह सॉलिड, लिक्विड और गैस तीनों रूपों में आसानी से उपलब्ध हो जाता है। घर में भी लोग इस विधि को कर सकते हैं। इसके बाथ टब की कीमत 500 से 25000 रुपये के बीच है।
मेरुदंड स्नान (स्पाइनल बाथ Spinal Bath)
यह पीठ दर्द और दमा में बहुत कारगर है। इस स्नान में रीढ़ की हड्डी पानी में डूबी रहती है और पैर पानी से ऊपर रहते हैं। पानी का तापमान भी जरूरत के हिसाब से होता है। आजकल स्पाइनल स्प्रे भी सेंटर्स पर कराए जाते हैं। इसमें मोटर की मदद से रीढ़ की हड्डी पर पानी की बौछार कराई जाती है। इससे माइक्रो मसाज होती है। यह एक अडवांस तरीका है। दरअसल, जिन्हें घुटने में समस्या है उनके लिए माइक्रो मसाज काफी फायदेमंद है क्योंकि इसमें घुटनों को मोड़ना नहीं पड़ता।
हॉट फुट बाथ (नींद के लिए)
दमा और ऑर्थराइटिस (Arthritis) के लिए बेहतर होता है। इसमें गर्म पानी को पैरों पर डाला जाता है। हॉट फुट मसाज उनके लिए भी अच्छी है, जिन्हें जाड़े के दिनों में पैर ठंडा होने से नींद नहीं आती। अगर कोई चाहे तो इसे घर पर भी आसानी से कर सकता है। पानी का तापमान 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक ही रखना है।
मड बाथ (Mud Bath)
इसमें जमीन को 6 से 8 फुट खोदकर मिट्टी निकाली जाती है। अगर मिट्टी नदी किनारे की हो तो अच्छा है। निकाली हुई मिट्टी को पहले 12 से 24 घंटे तक धूप में सुखाते हैं। अगर पत्थर या कोई और गंदगी है तो उसे निकाल देते हैं। फिर मोटी जाली से छान लेते हैं। बारीक मिट्टी जो अब पाउडर बन गई है, उसे 8 घंटे तक सामान्य पानी में भिगो कर गीले रूप में शरीर पर लगाते हैं। अगर सीधे शरीर पर नहीं लगाना है तो किसी पतले सूती कपड़े को पहनकर उसके ऊपर भी लगा सकते हैं। इससे फायदा यह है कि मिट्टी में कई तरह के मिनरल्स मौजूद होते हैं जो हमारे शरीर को उपलब्ध हो जाते हैं। साथ ही हमारी नसों को भी यह रिलैक्स करता है। स्किन पर मौजूद टॉक्सिंस को भी मिट्टी सोख लेती है। इतना ही नहीं यह शरीर के भीतर पैदा हुई अतिरिक्त गर्मी को भी खींच लेता है। जब इसे पेट के निचले हिस्से यानी बड़ी आंत के ऊपर लगाया जाता है तो कब्ज की समस्या में भी फायदा पहुंचता है।
मालिश (Massage)
अमूमन इसमें तिल या सरसों के तेल का उपयोग होता है। वैसे जाड़ों के लिए तिल का तेल अच्छा है। मालिश अमूमन 45 मिनट से 1 घंटे के लिए की जाती है।
मालिश का सही तरीका: हाथों की उंगलियों के अगले भाग से हल्के हाथों से करना ही सही है।
स्टीम बाथ (Steam Bath)
इसमें एक ऐसा कमरा होता है जो गर्म भाप से भरा होता है। कमरे का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस के करीब रखा जाता है।
(नोट: कई एक्सपर्ट स्टीम बाथ को नेचुरोपैथी के अंदर नहीं मानते।)
धूप स्नान (Sun Bath)
उगते सूरज की रोशनी की मदद से इलाज करना और विटामिन डी को प्राप्त करना ही धूप स्नान है। यह विटामिन डी प्राप्त करने का बेहतरीन जरिया है।
कितनी देर के लिए धूप में बैठें: 20 से 30 मिनट
कब: सुबह 8 से 12, गर्मियों में सुबह 7 से 11
शरीर खुला: जितना मुमकिन हो। फिर भी 70 से 80% शरीर बिना कपड़ों के रहें तो ज्यादा फायदा।
डाइट की तीन स्टेट
आहार के जरिए बीमारियां दूर करने के लिए करीब 21 दिन का कार्यक्रम अपनाया जाता है।
1. सबसे पहले उपवास
उपवास को नेचुरोपैथी के जानकार एलिमिनेटिव डाइट (बाहर निकालने वाला आहार) कहते हैं। सेंटर पर पहुंचने के बाद सबसे पहले पेशंट को उपवास करने के लिए कहा जाता है। चाहे उसे कोई भी समस्या हो, उपवास सभी के लिए जरूरी है। इसके माध्यम से शरीर में पहले से मौजूद टॉक्सिंस को बाहर निकाला जाता है। यह उपवास 1 दिन का भी हो सकता है या फिर 7 दिनों तक का भी। उपवास के दिनों की संख्या मरीज की क्षमता पर निर्भर है। उपवास के दौरान सुबह से रात तक सामान्य पानी या नीबू पानी दिया जाता है। एक सामान्य आदमी दिन भर में लगभग 3 से 4 लीटर पानी पी लेता है। वहीं नीबू पानी एक से डेढ़ लीटर ही पीता है। यह ध्यान रहे कि बिना प्यास के पानी नहीं पीना है। वैद्य इस समय मरीज को मिनी एनिमा भी लेने के लिए कहते हैं। दोनों चीजें एकसाथ होने से ज्यादा फायदा होता है। नारियल पानी भी उपवास में लिया जा सकता है।
2. शुद्धि आहार
सुबह में 1 या 2 गिलास पानी या फिर 1 गिलास नीबू पानी
इसके बाद नाश्ता: फल (1 से 2 सेब या 200 ग्राम पपीता)। एक बात याद रखें कि नेचुरोपैथी में सलाद पर नीबू रस और नमक-मसाला मिलाकर खाने से मना किया जाता है क्योंकि इससे सलाद की फायदेमंद केमिस्ट्री बदल जाती है।
दोपहर का खाना: इसमें गाजर, चुकंदर, घीया, पालक, टमाटर आदि को खाने के लिए दिया जाता है। इन सभी को मिलाकर 400 से 500 ग्राम तक लिया जाता है।
शाम में: हरी सब्जियों के सूप, जिसमें पालक, टमाटर आदि हों। 100 से 150 एमएल (लगभग एक कटोरी) ले सकते हैं।
रात का खाना : दोपहर के खाने जैसा ही।
3. संतुलित भोजन
यह 7 दिनों तक चलता है। इसमें दिन और रात के खाने का मेन्यू बदल जाता है।
सुबह में मौसमी का रस या संतरे का रस
नाश्ता: अमूमन शुद्धि डाइट जैसा ही
दोपहर का खाना: 2 से 3 चपाती (बाजरे या फिर अलग-अलग अन्न की रोटियां, सिर्फ गेहूं की नहीं खानी चाहिए।), एक कप दाल (100 से 150 एमएल), उबली हुई सब्जी (200 से 300 ग्राम)
शाम में: सब्जियों का सूप, ग्रीन टी आदि यानी लाइट फूड ही लेना है।
रात में: दोपहर के खाने जैसा भोजन। अगर भूख नहीं है तो एक सेब या 100 से 150 ग्राम कोई भी एक फल खा सकते हैं। खाली पेट नहीं सोना है।
अगर इस डाइट को फॉलो करने से ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है तो इसे दोबारा चलाया जाता है। यह काफी हद तक मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है।
कच्चा खाना मुश्किल, पर जरूरी भी: यह सच है कि कच्चा फल या उबली हुई सब्जियां आदि खाना मुश्किल होता है क्योंकि कच्चे फलों को चबाने में ज्यादा मेहनत करना पड़ती है, तो उबली हुई सब्जियां ज्यादा टेस्टी नहीं होतीं। फिर भी ये हमारे लिए बहुत फायदेमंद हैं।
(नोट: लोग इस तरह की डाइट घर पर भी फॉलो कर सकते हैं। शुरू में तीनों तरह की डाइट को एक-एक दिन तक करते हुए तीन दिन में पूरा कर सकते हैं। अगर घर पर तीनों दिन की डाइट फॉलो करना मुश्किल लगता है और किसी पार्टी में ज्यादा खा लिया तो दूसरे दिन शुद्धि डाइट को अपना लें।)
घर पर भी ऐसे रखें अपनी डाइट का ख्याल
1. घड़ी की सुइयों के हिसाब से न खाएं। जब घंटी पेट में बजे, तब खाएं। यानी खाना भूख लगने पर ही खाएं और ज्यादा खाना नहीं, ज्यादा चबाना जरूरी है।
2. एक वक्त पर एक ही फल खाएं, सेब 2, 3 खा सकते हैं, पर एक सेब, एक केला नहीं।
3. फल एक वक्त के खाने की जगह खाएं। खाने से पहले, खाने के बाद या खाने के साथ न खाएं।
4. कच्ची सब्जियों का सलाद रोज एक बार खाना जरूरी है। यह भी खाने से पहले, खाने के बाद या खाने के साथ न खाएं। सलाद एक वक्त के खाने के तौर पर खाएं। सलाद में अलग-अलग कच्ची सब्जियां मिलाकर ले सकते हैं।
5. सलाद में न तो नीबू डालें और न ही नमक। ये दोनों चीजें सलाद की सेहत बढ़ाने वाली केमिस्ट्री में दखल पैदा करती हैं। सलाद यानी सब्जियां ऐल्कलाइन होती हैं, नीबू और नमक एसिड।
6. सब्जियों के साथ फल न खाएं और न ही फल के साथ सब्जियां। कारण, फल एसिडिक होते हैं और सब्जियां ऐल्कलाइन।
7. ऐल्कलाइन चीजें ज्यादा खाएं, एसिडिक चीजें कम। शरीर में एसिड ज्यादा हो तो यूरिक एसिड बढ़ता है, स्किन इंफेक्शन हेता है, और तमाम तरह की बीमारियां होती हैं।
8. पका हुआ खाना दिन में एक ही बार खाएं। नाश्ता हल्का रखें। इसमें फल खाएं या सलाद। दिन की शुरुआत ऐल्कलाइन पेय से करें जैसे नारियल पानी, सफेद पेठे का रस आदि।
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